काकोरी से हुई थी नई क्रांति की शुरुआत (19 दिसम्बर 2020)- दक्षिण भारत
ब्रिटिश हुकूमत जो स्वतंत्रता, स्वाभिमान, स्वावलंबन को कुचल कर हिंदुस्तान पर अपना राज कर रही थी, उसके खिलाफ संपूर्ण देश लड़ रहा था। सन 1857 की क्रांति के बाद चापेकर बंधुओं द्वारा रैंड व आयस्टर की हत्या के साथ सैन्यवादी राष्ट्रवाद का जो दौर प्रारंभ हुआ, वह भारत के राष्ट्रीय फलक पर महात्मा गांधी के आगमन तक निर्विरोध जारी रहा। लेकिन फरवरी 1922 में चौरा-चौरी की घटना के बाद गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने से युवाओं को घोर निराशा हुई।
ब्रिटिश हुकूमत जो स्वतंत्रता, स्वाभिमान, स्वावलंबन को कुचल कर हिंदुस्तान पर अपना राज कर रही थी, उसके
खिलाफ संपूर्ण देश लड़ रहा था। सन 1857 की क्रांति के बाद चापेकर बंधुओं द्वारा रैंड व
आयस्टर की हत्या के साथ सैन्यवादी राष्ट्रवाद का जो दौर प्रारंभ हुआ, वह भारत के राष्ट्रीय फलक पर महात्मा गांधी के आगमन तक निर्विरोध जारी रहा। लेकिन फरवरी 1922 में चौरा-चौरी की घटना के बाद गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने
से युवाओं को घोर निराशा हुई।
भारत की स्वाधीनता के लिये क्रांतिकारी आंदोलन भी एक प्रमुख धारा थी। खुदीराम बोस, चाफेकर बंधु, बंगाल का अनुशीलन दल, बारीन्द्र और अरविंदो घोष, श्यामजी कृष्ण वर्मा आदि से जुड़ी क्रांतिकारी गतिविधियां और अनेक जांबाज़ युवाओं के संगठन अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र रूप से सक्रिय थे। वो जान पर खेल जाने वाले दुस्साहसी और स्वाभिमानी युवा गुलामी से मुक्त होने के लिये प्रयासरत थे। वे जानते थे कि स्वतंत्रता कोई भीख नही होती जो मांगने से मिलती है। स्वतंत्रता स्वाभिमान है, गौरव है, ऐसा जीवन मूल्य है जिसके लिए सर्वस्व अर्पण भी बहुत ही कम है। इसके लिए शचीन्द्रनाथ सन्याल, पं0 राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद आदि द्वारा हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ (एच.आर.ए.) गठित किया गया, जो पहला क्रांतिकारी संगठन था और जिसने आज़ादी के बाद के भारत के भावी राजनैतिक स्वरूप पर गम्भीरता और स्पष्टता से सोचा था। ये अंग्रेजों को हटाना केवल इसलिए ही नहीं चाहते थे कि हम एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र बनें बल्कि उनका निशाना ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विनाश था, इंक़लाब था और इंक़लाब ज़िंदाबाद, ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद सबसे लोकप्रिय उद्घोष था। उनका लक्ष्य एक शोषण विहीन राजव्यवस्था की स्थापना करना था। स्वराज्य के लिए बेहद महत्वाकांक्षी लक्ष्य था, परन्तु इसे सोचने का साहस इन क्रांतिकारियों ने किया था।
इन क्रांतिकारियों को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई के लिये हथियार खरीदने थे। इसके लिए पं0 राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजों से खजाना लूटने की योजना बनायी, जिसको अंग्रेजों ने भारतीयों से ही हड़पा था। 09अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी ‘आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन’ का चेन खींच कर रोका गया और पं0 राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहड़ी, पं0 चन्द्रशेखर आज़ाद व 06 अन्य सहयोगियों की मदद से खजाना ले गये जबकि यात्रियों को कोई नुकसान नहीं हुआ। काकोरी की इस घटना से अंग्रेजों के अभिमान को गहरा चोट पहुंचा। क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये सीआईडी इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की पुलिस ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इसके लिए पांच हजार रुपये के इनाम की घोषणा हुई। परन्तु काकोरी की घटना को अंजाम देकर इन क्रांतिकारियों ने पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध एक नई क्रांति का सूत्रपात कर दिया था, जिससे आम जनता अँग्रेजी राज से मुक्ति के लिए क्रांतिकारियों की ओर एक उम्मीद से देखने लगी थी।
26 सितंबर को पूरे प्रांत में गिरफ्तारियों और तलाशियों से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया। 06 अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ और पं0 रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खान को फांसी की सजा सुनाई गयी। इस छोटी सी घटना में फांसी की सजा से जनता का क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति और गहरी हो गई थी और फांसी की सजा की खबर सुनते ही जनता आंदोलन पर उतारू हो गई। अदालत के फैसले के खिलाफ शचीन्द्रनाथ सान्याल और भूपेन्द्रनाथ सान्याल के अलावा सभी ने लखनऊ चीफ कोर्ट में अपील दायर की, लेकिन कोई हल नहीं निकला।
17 दिसम्बर 1927 को सबसे पहले गोंडा जेल में राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फांसी दी गयी। राजेंद्र लहरी 14 दिसम्बर को लिखे गये पत्र में लिखा था कि
‘देश की बलिवेदी को हमारे रक्त की आवश्यकता है।
मृत्यु क्या है? जीवन की दूसरी दिशा
के अतिरिक्त और कुछ नहीं।
इसलिए मनुष्य मृत्यु से दुख और भय क्यों माने? यह उतनी ही
स्वाभाविक अवस्था है जितना प्रातः कालीन सूर्य का उदय होना।
यदि यह सच है इतिहास पलटा खाया करता है तो मैं समझता हूँ कि
हमारी मृत्यु व्यर्थ न जाएगी’।
भारत की स्वाधीनता के लिये क्रांतिकारी आंदोलन भी एक प्रमुख धारा थी। खुदीराम बोस, चाफेकर बंधु, बंगाल का अनुशीलन दल, बारीन्द्र और अरविंदो घोष, श्यामजी कृष्ण वर्मा आदि से जुड़ी क्रांतिकारी गतिविधियां और अनेक जांबाज़ युवाओं के संगठन अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र रूप से सक्रिय थे। वो जान पर खेल जाने वाले दुस्साहसी और स्वाभिमानी युवा गुलामी से मुक्त होने के लिये प्रयासरत थे। वे जानते थे कि स्वतंत्रता कोई भीख नही होती जो मांगने से मिलती है। स्वतंत्रता स्वाभिमान है, गौरव है, ऐसा जीवन मूल्य है जिसके लिए सर्वस्व अर्पण भी बहुत ही कम है। इसके लिए शचीन्द्रनाथ सन्याल, पं0 राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद आदि द्वारा हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ (एच.आर.ए.) गठित किया गया, जो पहला क्रांतिकारी संगठन था और जिसने आज़ादी के बाद के भारत के भावी राजनैतिक स्वरूप पर गम्भीरता और स्पष्टता से सोचा था। ये अंग्रेजों को हटाना केवल इसलिए ही नहीं चाहते थे कि हम एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र बनें बल्कि उनका निशाना ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विनाश था, इंक़लाब था और इंक़लाब ज़िंदाबाद, ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद सबसे लोकप्रिय उद्घोष था। उनका लक्ष्य एक शोषण विहीन राजव्यवस्था की स्थापना करना था। स्वराज्य के लिए बेहद महत्वाकांक्षी लक्ष्य था, परन्तु इसे सोचने का साहस इन क्रांतिकारियों ने किया था।
इन क्रांतिकारियों को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई के लिये हथियार खरीदने थे। इसके लिए पं0 राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजों से खजाना लूटने की योजना बनायी, जिसको अंग्रेजों ने भारतीयों से ही हड़पा था। 09अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी ‘आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन’ का चेन खींच कर रोका गया और पं0 राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहड़ी, पं0 चन्द्रशेखर आज़ाद व 06 अन्य सहयोगियों की मदद से खजाना ले गये जबकि यात्रियों को कोई नुकसान नहीं हुआ। काकोरी की इस घटना से अंग्रेजों के अभिमान को गहरा चोट पहुंचा। क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये सीआईडी इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की पुलिस ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इसके लिए पांच हजार रुपये के इनाम की घोषणा हुई। परन्तु काकोरी की घटना को अंजाम देकर इन क्रांतिकारियों ने पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध एक नई क्रांति का सूत्रपात कर दिया था, जिससे आम जनता अँग्रेजी राज से मुक्ति के लिए क्रांतिकारियों की ओर एक उम्मीद से देखने लगी थी।
26 सितंबर को पूरे प्रांत में गिरफ्तारियों और तलाशियों से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया। 06 अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ और पं0 रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खान को फांसी की सजा सुनाई गयी। इस छोटी सी घटना में फांसी की सजा से जनता का क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति और गहरी हो गई थी और फांसी की सजा की खबर सुनते ही जनता आंदोलन पर उतारू हो गई। अदालत के फैसले के खिलाफ शचीन्द्रनाथ सान्याल और भूपेन्द्रनाथ सान्याल के अलावा सभी ने लखनऊ चीफ कोर्ट में अपील दायर की, लेकिन कोई हल नहीं निकला।
17 दिसम्बर 1927 को सबसे पहले गोंडा जेल में राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फांसी दी गयी। राजेंद्र लहरी 14 दिसम्बर को लिखे गये पत्र में लिखा था कि
‘देश की बलिवेदी को हमारे रक्त की आवश्यकता है।
इसलिए मनुष्य मृत्यु से दुख और भय क्यों माने? यह उतनी ही
स्वाभाविक अवस्था है जितना प्रातः कालीन सूर्य का उदय होना।
यदि यह सच है इतिहास पलटा खाया करता है तो मैं समझता हूँ कि
हमारी मृत्यु व्यर्थ न जाएगी’।
एक शहर में जन्मे, एक ही दिन 19 दिसम्बर 1927 को तीन अलग-अलग स्थानों पर फांसी को चूमने वालों में पं0 रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में, ठाकुर रोशन सिंह को नैनी जेल, प्रयागराज में तथा अशफाक उल्ला खान को अयोध्या में फांसी दी गयी। फांसी के तख्ते पर खड़े होकर पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने कहा कि ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ’। फिर उन्होंने एक शेर पढ़ा
अब न अहले वलवले है और न अरमानों की भीड़,
रोशन सिंह ने फांसी के छः दिन पहले अपने मित्र को पत्र में लिखा कि ‘मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस करने लायक नहीं है। मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस करने लायक नहीं है। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्ट भरी यात्रा को समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी के लिए जा रहा हूँ। हमारे शास्त्रों में लिखा है जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वालों की और कहा कि
‘जिंदगी जिंदादिली को जान-ए- रोशन,
‘जाऊंगा खाली हाथ मगर, ये दर्द साथ ही जायेगा,
फिर आकर के ऐ भारत मां, तुझको आज़ाद कराऊंगा"।
जी करता है मैं भी कह दूँ पर, मजहब से बंध जाता हूँ,
हां खुदा अगर मिल गया कहीं; अपनी झोली फैला दूंगा,
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