छठ का महापर्व: 2022

छठ माता की पूजा चार दिन का होता है, इसमें दो दिन होते है, जो नदी तट पर डुबते व उगते सूर्य की आराधना होती है। मेरी माता जी छठ का व्रत रहा करती थी। पहले संयुक्त परिवार में कुल संख्या 23 होने के बाद भी अकेले ही सभी की सुख-समृद्धि के लिए कामना करते हुए छठ माता की पूजा करती थी। वैसे मेरी माता जी रीवा, मध्य प्रदेश की होने के बाद भी इस त्यौहार की महत्ता को ठीक से समझती थी। आज वो नहीं है, परन्तु उनके द्वारा बताये गए नियम से ही छठ पूजा की तैयारी शुरू हो चुकी है। माँ की इच्छा के अनुसार पुत्र होने पर ही छठ माता के टूट-फुट की मरम्मत कर छठ का एक इट ऊपर करने का संकल्प तथा कोसी भरने का पुनीत कार्य इस बार पूरा हो गया है। उनके रहते हुए यह होता हो प्रसन्नता के साथ उल्लास अधिक होता। खैर! प्रभु की इच्छा।
छठ का पर्व सूर्य की उपासना का पर्व है। डूबते हुए सूर्य के साथ पूजा शुरू होकर रात्रि जागरण के बाद सुबह सूर्योदय के साथ समाप्त होती है। सूर्य की दो पत्नियां हैं- उषा व प्रत्यूषा। उषा सुबह की किरण है और प्रत्यूषा शाम की किरण को कहा जाता है। छठ माता पार्वतीजी का ही पर्याय है, जो मां पार्वती के स्कंद रूप में है। इनका जन्म कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को हुआ था, जिससे छठ माता के रूप में इनकी पूजा होती है। लोक आस्था के इस महापर्व के माध्यम से यह पूजनोत्सव सामुदायिक भागीदारी के साथ छठ के गीतों से गुंजायमान वातावरण में मनाया जाता है।
वैदिक काल से चली आ रही छठ पूजा आज भी विद्यमान है। त्रेता युग में वनवास से लौटने पर माता सीता ने छठ माता की पूजा की थी। अपना सब कुछ गवा देने वाले पाण्डवों के लिए द्रौपदी ने छठ व्रत किया था। श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब का कुष्ट रोग छठ माता के पूजन के बाद ही खत्म होने की बातें सामने आती है। एक राजा प्रियव्रत की कथा भी प्रचलित है, जिन्हें छठ माता की पूजा के बाद ही संतान की प्राप्ति हुई थी। 
1130 ई0 में गढ़वाल के राजा गोविन्द अग्रवाल के सेनापति लक्ष्मीधर की पुस्तक 'कल्पतरु' में तथा 1280 ई0 में हेमाद्रि द्वारा सूर्य उपासना की चर्चा है। मिथिला के चंडेश्वर ने 13वी सदी में रचित अपनी कृति 'कृत्य रत्नाकर' तथा 15वी सदी के रुद्रधर की रचना 'वर्षकृत्य' में छठ पूजा के बारे में बताया है। रुद्रधर ने चार दिनों का पर्व बताया है, जिसमें षष्ठी को निराहार रहकर शाम में नदी तट पर भगवान सूर्य को जल अर्पित करना तथा सूर्य की आराधना के बाद रात्रि में जागरण और पुनः सुबह सूर्य की आराधना करना बताया है, जो आज भी विद्यमान है। वर्ष 1955 में डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की पुस्तक 'पाणिनि कालीन भारत वर्ष' में चंद्र गुप्त काल के सिक्कों पर षष्ठी देवी की प्रतिमा के उद्धत की बात बताई गयी है, जो वास्तव में छठ माता है।
मान्यताओं के अनुसार छठ माता की पूजा व व्रत करने से संतान सुख  तथा जीवन में सुख-समृद्धि आती है। मिथिला में आज भी बेटियां अपने माइका में ही छठ व्रत करने की परम्परा है। वर्तमान समय में विश्व भर में प्रसिद्ध छठ पूजा पुरबिया लोगों के आस्था के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध है। जब छठ पूजा का त्यौहार आता है, बाहर रह रहे लोग अपने गांव की ओर लौट आते हैं। गांव में इस प्रकार की समाजिक एकता, समरसता, सामुदायिक सहयोग की भावना देखने को मिलती है, जो वास्तव में हमारे सनातन संस्कृति के मूल भाव को प्रकट करती है।
 आप सभी को छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनाएं

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