चीन पर नियंत्रण में भारत की भूमिका- दैनिक जागरण (10.09.2022)

चीन द्वारा ताइवान पर कब्जा कर लेने की स्थिति में हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों संप्रभुता खतरे में आ जाएगी। परन्तु कोई ऐसा देश नहीं है, जो सीधे चीन से मुक़ाबला करने में सक्षम हो। ताइवान के बाद चीन हिमालय में स्थित अरुणाचल प्रदेश तथा लद्दाख को पाने के लिए भारत के साथ युद्ध की स्थिति खड़ी कर सकता है। इन परिस्थितियों में हिमालयी क्षेत्र में होने वाला भारत-अमेरिका संयुक्त सैन्य अभ्यास चीन को संकेत है कि ताइवान के साथ युद्ध में एक दूसरा संभावित मोर्चा भी खुल सकता है। इसलिए सम्पूर्ण एशिया में शांति बनाए रखने के लिए ताइवान का स्वतंत्र रहना जरूरी है। भारत चीन की वन चाइना नीति को स्वीकार कर चुका है, परन्तु चीन की आक्रामकता को देखते हुए ताइवान जलडमरूमध्य की यथास्थिति बदलने से बचने, तनाव को कम करने तथा क्षेत्र की स्थिरता और शांति को कायम रखने की नसीहत देना भी भारत की नई रणनीति का हिस्सा है।  








रूस-यूक्रेन युद्ध के छह महीने बीत जाने के बाद विश्व में अशांति का प्रमुख क्षेत्र ताइवान बन चुका है, जिसका कारण चीन के विस्तारवादी मंसूबे है। ताइवान पर कब्जा करने के उद्देश्य से चीन वैश्विक पटल पर वन चाइना नीति की स्वीकारता के लिए दबाव बनाता रहा है। परन्तु ताइवान खुद को स्वतंत्र राष्ट्र मानता है, जिसे 12 से अधिक देशों ने मान्यता भी दे रखी है। अभी हाल में अमेरिकी संसद की स्पीकर नैंसी पेलोसी के ताइवान दौरे के बाद चीन का रुख आक्रामक हो गया, परन्तु अमेरिका पीछे नहीं हटा और अमेरिकी सांसदों व अधिकारियों की यात्राएं जारी रखा। इन यात्राओं को चीन अपने आंतरिक मामलों में अमेरिका का दखल मानकर आक्रामक हो गया और अपने लड़ाकू विमानों व नौसेना से ताइवान का चारों ओर से घेराव भी कर लिया। चीन के इस रवैये को देखते हुए अमेरिका के दो युद्ध पोत जैसे ही ताइवान जलडमरूमध्य से गुजरे, चीन की भाषा ही बदल गयी। एक तरफ नैंसी पेलोसी को हवा में मार गिराने की बात करने वाला चीन सिर्फ हाई अलर्ट पर रहने की बात करने लगा और जरूरत होने पर जरूरी कार्यवाही के संदेश दे पाया। अमेरिका ने स्वतंत्र व खुले इंडो-पैसेफिक क्षेत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दुहराकर चीन के दावों पर नकेल कसने की कोशिश की है तथा यह बताने का प्रयास भी किया कि 180 किमी का जलडमरूमध्य समुद्र का एक भाग है, जो ताइवान के एक लोकतांत्रिक स्व-शासित द्वीप को चीन से अलग करता है, जिसमें अधिकांश जलडमरूमध्य अंतर्राष्ट्रीय जल मार्ग के अंतर्गत आता है। 

       चीन के दक्षिण-पूर्वी तट से लगभग 100 मील दूर द्वीपीय देश ताइवान उत्तर-पश्चिमी प्रशांत महासागर में पूर्वी चीन सागर और दक्षिण चीन सागर के मिलन बिंदु पर स्थित है और जापान फिलीपींस के बीच स्थित सबसे बड़े स्थल भाग के रूप में हैपूर्वी चीन सागर, फिलीपीन सागर और दक्षिण चीन सागर के बीच घिरे होने के कारण ताइवान की अवस्थिति महत्वपूर्ण हो जाती है। मियाको जलडमरूमध्य या केरमा गैप पूर्वी चीन सागर से प्रशांत महासागर तक पहुंचने के लिए कुछ अंतर्राष्ट्रीय जलमार्गों में से एक है, जो मियाको और ओकिनावा द्वीप के बीच है। इसी प्रकार बाशी चैनल, जो दक्षिण चीन सागर को पश्चिमी प्रशांत महासागर से जोड़ता है, फिलीपींस के उत्तर में लुज़ोन द्वीप और ताइवान के आर्किड द्वीप के बीच एक जलमार्ग है। यह लूजोन जलडमरूमध्य का हिस्सा है, जो फिलीपीन सागर को दक्षिण चीन सागर से जोड़ता है।

       अपनी अवस्थिति के कारण ताइवान भू-राजनीति का प्रमुख क्षेत्र बन गया है, जिस पर चीन की कुदृष्टि है। संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा चीन और सोवियत संघ की समुद्री महत्वाकांक्षाओं पर नियंत्रण करने के लिये एक भौगोलिक सुरक्षा की अवधारणा बनाई गयी है। इसमें कई द्वीप-समूह है, जो दक्षिण चीन सागर के पास उत्तरी-पश्चिमी फिलीपींस, ताइवान, जापान द्वीप-समूहकुरील द्वीप-समूह मिल कर एक द्वीपीय शृंखलाओं का क्रम बनाते है, जो अमेरिका की रक्षा रणनीति का हिस्सा है। चीन का ताइवान पर कब्जे का उद्देश्य इन समुद्री जल मार्गों पर अमेरिका की सुरक्षा शृंखला में सेंधमारी करना है। इसी रणनीति के तहत दक्षिण चीन सागर के 80 प्रतिशत से अधिक भाग पर चीन अपना दावा करता है और उसे अपने अधिकार में लेने के प्रयास भी कर रहा है, जिससे आए दिन विवाद की स्थिति बन जाती है। चीन की विस्तारवादी हरकतों से दक्षिण-पूर्व एशिया के देश डरे तो है, परन्तु अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए युद्ध तक करने को भी तैयार है और भारत की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते है।

       चीन का सीधे तौर पर हिंद महासागर से जुड़ा नहीं है, परन्तु हिंद महासागरीय परिक्षेत्र पर नियंत्रण ही ब्लू इकोनामी पावर बनने की आवश्यक शर्त है। दक्षिण एशिया व दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच की एक कड़ी के रूप में ग्रेट निकोबार के निकट स्थित मलक्का जलसन्धि के रास्ते 60 प्रतिशत से अधिक खनिज तेल आयात और अपने उत्पाद के निर्यात का मार्ग होने के कारण हिंद महासागर चीन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। चीन दक्षिण एशिया में अपने कर्ज जाल की नीति में सफल रहा है और विभिन्न बंदरगाहों को हथिया कर हिंद महासागरीय क्षेत्र में नौसेना को स्थापित करने के प्रयास में रहता है। मई 2020 में लद्दाख में हमले कर चीन सियाचिन ग्लेशियर पर अपना कब्जा करना चाहता था, जिससे अक्साई चीन और गिलगित-बाल्टिस्तान के बीच भारतीय नियंत्रण समाप्त हो जाए और वह सीधे हिन्द महासागर से जुड़ जाय, जहां वह विकास के नाम पर ग्वादर बंदरगाह को पहले से ही कब्जा कर चुका है।

       चीन द्वारा ताइवान पर कब्जा कर लेने की स्थिति में हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों संप्रभुता खतरे में आ जाएगी। परन्तु कोई ऐसा देश नहीं है, जो सीधे चीन से मुक़ाबला करने में सक्षम हो। ताइवान के बाद चीन हिमालय में स्थित अरुणाचल प्रदेश तथा लद्दाख को पाने के लिए भारत के साथ युद्ध की स्थिति खड़ी कर सकता है। इन परिस्थितियों में हिमालयी क्षेत्र में होने वाला भारत-अमेरिका संयुक्त सैन्य अभ्यास चीन को संकेत है कि ताइवान के साथ युद्ध में एक दूसरा संभावित मोर्चा भी खुल सकता है। इसलिए सम्पूर्ण एशिया में शांति बनाए रखने के लिए ताइवान का स्वतंत्र रहना जरूरी है। भारत चीन की वन चाइना नीति को स्वीकार कर चुका है, परन्तु चीन की आक्रामकता को देखते हुए ताइवान जलडमरूमध्य की यथास्थिति बदलने से बचने, तनाव को कम करने तथा क्षेत्र की स्थिरता और शांति को कायम रखने की नसीहत देना भी भारत की नई रणनीति का हिस्सा है।  

       अमेरिका ताइवान की मदद करता हुआ दिखाई दे रहा है, परन्तु वह रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने में वह नाकाम रहा है, जिससे चीन व रूस की निकटता हो जाने से विश्व में नए समीकरण बन गए है। आने वाले समय में चीन के बढ़ते हस्तक्षेप, रूस की चीन से निकटता व उस पर निर्भरता से हिंद-प्रशांत का परिक्षेत्र भू-राजनीति के अखाड़े का केंद्र-बिंदु बनता प्रतीत हो रहा है। इसके लिए भारत को हिमालय- हिंद महासागर परिक्षेत्र से बाहर निकलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक नई रणनीतिक अवधारणा को विकसित करना होगा, जिसमें अमेरिका, चीन, यूरोप, रूस और जापान को संतुलित करना सन्निहित हो। इसके लिए हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के शदियों पुराने सांस्कृतिक व व्यापारिक गतिविधि के केंद्रों को पुनर्स्थापित करते हुए एक सैन्य संगठन को भी अस्तित्व में लाना होगा, जिसका नेतृत्व भारत के हाथ में होने से वैश्विक शांति की उम्मीद की जा सकती है। 


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