भारतीय सैनिकों का बलिदान और हाइफा की स्वतंत्रता- स्वदेश (23.09.2022)

वामपंथियों ने आक्रांताओं के इतिहास को भारत का इतिहास तो बनाया ही, साथ ही विदेशी भूमि पर भारतीयों की वीरता और उपलब्धियों को पूरी तरह से लुप्त कर दिया। 23 सितंबर 1918 को तुर्की, जर्मन, आस्ट्रिया, हंगरी की आधुनिक हथियारों से युक्त सेनाओं के विरुद्ध युद्ध में जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद से गए भारतीय सैनिकों की वीरता, साहस और बलिदान ने इजराइल की एक स्वतंत्र देश के रूप में नींव रख दी। दो हजार वर्षों में यहूदी भारत को छोडकर सम्पूर्ण विश्व में दुर्व्यवहार और अमानवीय यातनाओं के शिकार हो रहे थे और गुलामी का जीवन जी रहे थे, इसलिए अपनी जन्मभूमि को स्वतंत्र देखने और वहां बसकर गरिमामय जीवन जीने के इच्छुक थे। भारतीय सैनिकों के द्वारा हाइफा की मुक्ति के बारे में सुनकर वर्ष 1919 से यहूदी इजराइल में आकर बसते गए और यहूदियों की संख्या बढ़ती गई। अंततः वर्ष 1948 में राज्य-राष्ट्र के रूप में इजराइल अस्तित्व में आ गया।






हिंदी मिलाप- आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक व महाराष्ट्र 

वामपंथियों ने आक्रांताओं के इतिहास को भारत का इतिहास तो बनाया ही, साथ ही विदेशी भूमि पर भारतीयों की वीरता और उपलब्धियों को पूरी तरह से लुप्त कर दिया। 23 सितंबर 1918 को तुर्की, जर्मन, आस्ट्रिया, हंगरी की आधुनिक हथियारों से युक्त सेनाओं के विरुद्ध युद्ध में जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद से गए भारतीय सैनिकों की वीरता, साहस और बलिदान ने इजराइल की एक स्वतंत्र देश के रूप में नींव रख दी। दो हजार वर्षों में यहूदी भारत को छोडकर सम्पूर्ण विश्व में दुर्व्यवहार और अमानवीय यातनाओं के शिकार हो रहे थे और गुलामी का जीवन जी रहे थे, इसलिए अपनी जन्मभूमि को स्वतंत्र देखने और वहां बसकर गरिमामय जीवन जीने के इच्छुक थे। भारतीय सैनिकों के द्वारा हाइफा की मुक्ति के बारे में सुनकर वर्ष 1919 से यहूदी इजराइल में आकर बसते गए और यहूदियों की संख्या बढ़ती गई। अंततः वर्ष 1948 में राज्य-राष्ट्र के रूप में इजराइल अस्तित्व में आ गया।
दक्षिण-पूर्व यूरोप, पश्चिम एशिया, अफ्रीका पर फैले आटोमन साम्राज्य अत्यंत शक्तिशाली था, जो वर्ष 1908 से बिखरते हुए प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व सम्पूर्ण यूरोप व दक्षिण अफ्रीका से अस्तित्व विहीन हो गया था। वर्ष 1299 में स्थापित तुर्क साम्राज्य में इजराइल का समुद्री तटीय शहर हाइफा रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बंदरगाह था, जिसे तुर्की द्वारा आर्थिक व व्यापारिक गतिविधियों को रोक दिया गया था। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अपनी सेना के लिए आपूर्ति जारी रखने के उद्देश्य से लिए ब्रिटिश जनरल एलेनबी को हाइफा के बंदरगाह और रेलवे स्टेशन को अपने नियंत्रण में करना जरुरी शर्त थी।
इसके लिए जनरल ऐलेनबी के नेतृत्व में 22 सितंबर 1918 को हुए हमलें में 30 तुर्की सैनिक मारे गए तथा 311 सैनिकों को उनकी चार मशीनगनों के साथ पकड़ लिया गया। जब इम्पीरियल सेनाओं ने शहर का हवाई दृश्य लिया, तो ऐसा लग रहा था कि शहर पूरी तरह से खाली हो गया था। इसलिए ब्रिगेडियर जनरल एडीए किंग ने हाइफा पर कब्जा करने के लिए नाझरथ रोड पर अपनी लाइट आर्म्ड ब्रिगेड की एक टुकड़ी 22 सितंबर को ही भेजी परन्तु कार्मेल पर्वत के ऊपर से मशीनगनों व तोपों के साथ हमलें के कारण जब ब्रिटिश सेना को दुश्मन की मोर्चाबंदी और ताकत के बारे में पता चला, तब ब्रिगेडियर जनरल एडीए किंग ने सेना को वापस बुला लिया था। परन्तु भारतीय योद्धा सेना को वापस बुलाने के निर्णय से खुश नहीं थे। वो अपने देश भारत में किस मुंह से जाएंगे, जहां शत्रु के डर से मैदान छोड़कर भागने से उचित लड़कर बलिदान होना ही श्रेयस्कर माना जाता है। 
भारतीय सैनिकों ने युद्ध न करने के निर्णय को अस्वीकार कर दिया और जोधपुर व मैसूर के भारतीय घुड़सवार और पैदल सेना ने केवल भालों व तलवारों के साथ 23 सितंबर को हाइफा की ओर बढ़ना शुरू किया। उनका मार्ग कार्मेल पर्वत श्रृंखला के साथ लगा हुआ था और किशोन नदी व इसकी सहायक नदियों के साथ नमी युक्त भूमि की एक पट्टी तक सीमित था। जैसे ही 14वीं व 15वीं कैवेलरी ब्रिगेड आगे की ओर बढ़ी कार्मेल पर्वत पर तैनात 77 एमएम की तोपों से हमले कर दिया। मैसूर लांसर्स ने दक्षिण की ओर से पर्वत कार्मेल पर चढ़ाई कर दो नेवी बंदूकों को अपने कब्जे में का लिया तथा मशीनगनों के सामने से लड़ते हुए उनका सफाया कर दिया। जोधपुर लांसर्स ने हाइफा पर हमला कर दुश्मनों की मशीनगनों पर सामने से लड़ते हुए अपने जीवन का परवाह किए बिना मेजर दलपत सिंह के नेतृत्व में जोधपुर कैवेलरी गोलीबारी के बीच आगे बढ़ती रही और तलवार और भालें से तुर्की सेनाओं को मारते हुए हाइफा पर कब्जा कर लिया और 402 वर्षों से तुर्की शासन से स्वतंत्र कराकर हाइफा को मुक्त कर दिया। केवल दो रेजीमेंट ने परंपरागत हथियारों से लड़कर 1000 से अधिक अनुभवी मशीनगन व तोपों से युक्त तुर्की की सेना को हराकर मात्र एक दिन में युद्ध जीत लिया और 1532 दुश्मनों को युद्ध बंदी बनाया गया तथा 17 बंदूकों और 11 मशीनगनों को कब्जे में ले लिया गया था। इस जंग में 900 से अधिक भारतीय सैनिकों का इजराइल की धरती पर बलिदान हुआ।
हाइफा को स्वतंत्र करने में मेजर दलपर सिंह का बड़ा योगदान होने के कारण उन्हें हीरो ऑफ हाइफा भी कहा गया तथा उनके साथ कैप्टन अनूप सिंह और लेफ्टिनेंट सगत सिंह को मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया। कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा और जमादार जोर सिंह को युद्ध में उनकी वीरता के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया। हाइफा को मुक्त करवाने वाली जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद की रियासतों से संबंधित तीनों कैवलरी को मिलाकर भारतीय गणतंत्र में 61वीं कैवलरी रेजिमेंट के रूप में गठन किया गया। यह कैवलरी रेजिमेंट 23 सितंबर को प्रत्येक वर्ष हाइफा दिवस मनाती है। इजराइल में बलिदान हुए भारतीय सैनिकों की याद में नई दिल्ली में पहले प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरु का आवास के पास 8 मार्च 1924 को वाइसरॉय रीडिंग के समय इस प्रतिमा का अनावरण हुआ था, जो पीतल की बनी ये तीन मूर्तियाँ हैदराबाद, जोधपुर और मैसूर रियासतों के घुड़सवार सैनिकों का प्रतीक हैं। इसकी सुरक्षा में 19 किंग जॉर्ज फिफ्थ ओन लैंसर्स तैनात था और गार्ड ऑफ़ ऑनर 2/13 फ्रंटियर फोर्सेज रायफल्स ने दी थी। 
हाइफा में भारतीय सैनिको के बलिदान के सौ वर्ष पूर्ण होने पर नई दिल्ली में तीन मूर्ति चौक का नाम 23 जनवरी 2018 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की उपस्थिति में तीन मूर्ति हाइफा चौक रखा गया। देश की स्वाधीनता के बाद पहले भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी भारतीय वीरों के समाधि स्थल हाइफा पर पहुँचे, जिसके बाद भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस और इजराइल के साथ भारत की घनिष्ठता की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट हुआ। इजरायल अपने बच्चों को साहसी बनाने के लिए पाठ्य-पुस्तकों में हाइफा युद्ध और भारतीय सैनिकों के शौर्य-गाथाओं के पाठ को पढ़ा रहा कि कैसे मैसूर लांसर्स कार्मेल पर्वत की ढाल नुमा चट्टानों को पार कर रहे थे, जोधपुर लांसर्स धरती को रौंदते हुए, दुश्मनों की मशीनगन पर चढ़ाई करते हुए शहर में तेजी से आए, वहां रास्तों पर तुर्कों पर भाले व तलवार से प्रहार करते हुए घुड़सवार व पैदल सैनिकों ने लड़ाई लड़ी और विजयी हुए। भारत सरकार से अपने यहां पाठ्यक्रमों में इन वीर-सपूतों को उचित सम्मान देने की उम्मीद की जानी चाहिए।



Comments

Popular posts from this blog

ताइवान से जुड़े भारत के हित- दैनिक जागरण (15.06.2024) राष्ट्रीय संस्करण

भारत-ब्रिटेन: संबंधों के क्रमिक विकास की उम्मीद- हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा (13.07.2024)